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Shram Vibhajan Aur Jati Pratha Most Important Questions Class 12 Hindi chapter 15

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Shram Vibhajan Aur Jati Pratha Most Important Questions

Table of Contents

Shram Vibhajan Aur Jati Pratha Most Important Questions – Short Answer

Q1: बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का जन्म कब और कहाँ हुआ था?

Answer: बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को महू (मध्य प्रदेश) में हुआ था।

Q2: आंबेडकर की प्रथम प्रकाशित कृति कौन सी थी?

Answer: आंबेडकर की प्रथम प्रकाशित कृति “डेंस कास्ट्स इन इंडिया, देयर मेकेनिज़्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट” (1917) थी।

Q3: आंबेडकर के आदर्श समाज के तीन मुख्य तत्व कौन से हैं?

Answer: आंबेडकर के आदर्श समाज के तीन तत्व हैं – (1) समानता, (2) स्वतंत्रता, और (3) भ्रातृता।

Q4: जाति-प्रथा का समर्थन करने वाले मुख्य तर्क क्या हैं?

Answer: जाति-प्रथा के समर्थक यह तर्क देते हैं कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और जाति-प्रथा श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है।

Q5: आंबेडकर के अनुसार जाति-प्रथा श्रम विभाजन से कैसे भिन्न है?

Answer: जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है और विभाजित वर्गों को ऊँच-नीच भी करार देती है, जो विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।

Q6: दासता की आंबेडकर की व्यापक परिभाषा क्या है?

Answer: आंबेडकर के अनुसार दासता केवल कानूनी पराधीनता नहीं है, बल्कि वह स्थिति भी है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है।

Q7: आंबेडकर के विचार से मनुष्य की क्षमता किन तीन बातों पर निर्भर करती है?

Answer: मनुष्य की क्षमता निम्न तीन बातों पर निर्भर करती है – (1) शारीरिक वंश परंपरा, (2) सामाजिक उत्तराधिकार (माता-पिता की शिक्षा, वैज्ञानिक ज्ञान आदि), और (3) मनुष्य के अपने प्रयास।

Q8: आंबेडकर कब बौद्ध धर्मानुयायी बने?

Answer: आंबेडकर 14 अक्टूबर, 1956 को 5 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्मानुयायी बने।

Q9: आंबेडकर के विचार पर सबसे अधिक प्रभाव किन तीन व्यक्तियों का पड़ा?

Answer: आंबेडकर के विचार पर मुख्यतः तीन प्रेरक व्यक्तियों का प्रभाव पड़ा – (1) बुद्ध, (2) कबीर, और (3) ज्योतिबा फुले।

Q10: ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ (जाति का उच्छेद) पाठ कब और किस अवसर पर तैयार किया गया था?

Answer: ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ जाति-पांति तोड़क मंडल (लाहौर) के वार्षिक सम्मेलन (1936) के अध्यक्षीय भाषण के रूप में तैयार किया गया था।


Shram Vibhajan Aur Jati Pratha Most Important Questions – Long questions

Q1: आंबेडकर के जीवन परिचय को विस्तार से समझाइए। उन्होंने अपने जीवन में समाज के किन वर्गों के उत्थान के लिए कार्य किया?

Answer:

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को महू (मध्य प्रदेश) में एक दलित परिवार में हुआ था। वे अपने समय के सबसे सुपठित व्यक्तियों में से एक थे। प्रारंभिक शिक्षा के बाद बड़ौदा नरेश के प्रोत्साहन पर उन्होंने न्यूयार्क (अमेरिका) और फिर लंदन में उच्च शिक्षा प्राप्त की।

आंबेडकर एक बहुविषय विद्वान थे। वे इतिहास-मीमांसक, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षाविद् और धर्म-दर्शन के व्याख्याता के रूप में उभरे। उन्होंने संस्कृत का धार्मिक, पौराणिक और वैदिक साहित्य अनुवाद के माध्यम से पढ़ा और ऐतिहासिक-सामाजिक क्षेत्र में मौलिक स्थापनाएं प्रस्तुत कीं।

आंबेडकर के समाजसेवी कार्य:

  1. दलितों के उत्थान के लिए: आंबेडकर ने दलितों (अछूतों) के मानवीय अधिकार और सम्मान के लिए अथक संघर्ष किया। उन्होंने दलितों को शिक्षा, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सामाजिक समानता दिलाने के लिए कार्य किया।
  2. महिलाओं के अधिकारों के लिए: आंबेडकर ने महिलाओं की मुक्ति और समानता के लिए आवाज उठाई।
  3. मजदूरों के लिए: वे मजदूरों के अधिकारों और सम्मान के लिए भी संघर्षरत रहे।

आंबेडकर के जीवन का उद्देश्य मानव-मुक्ति था। स्वयं दलित जाति में जन्मे होने के कारण उन्हें बचपन से ही जाति-आधारित उत्पीड़न और अपमान का सामना करना पड़ा। एक विद्यालय के अध्यापक ने उनसे पूछा कि “तुम पढ़-लिखकर क्या बनोगे?” तो बालक भीमराव ने उत्तर दिया कि “मैं पढ़-लिखकर वकील बनूंगा, अछूतों के लिए नया कानून बनाऊंगा और छुआछूत को खत्म करूंगा।” आंबेडकर ने अपना पूरा जीवन इसी संकल्प के पीछे झलक दिया।

भारतीय संविधान के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी, जिसके कारण आज हम उन्हें भारतीय संविधान का निर्माता कहकर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनका निधन दिसंबर 1956 में दिल्ली में हुआ।


Q2: आंबेडकर के मत से जाति-प्रथा श्रम विभाजन नहीं है। इस विचार को विस्तार से समझाइए।

Answer:

आंबेडकर जाति-प्रथा को श्रम विभाजन मानने से असहमत हैं। उनके तर्कों को समझने के लिए पहले हमें यह समझना चाहिए कि जाति-प्रथा के समर्थक क्या तर्क देते हैं।

जाति-प्रथा के समर्थकों का तर्क:
समर्थकों का कहना है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूंकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है, इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है।

आंबेडकर की आलोचना:

  1. श्रम विभाजन और श्रमिक विभाजन में अंतर: आंबेडकर की पहली आपत्ति यह है कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है। सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती, लेकिन जाति-प्रथा ऐसा करती है।
  2. ऊँच-नीच का भेद: जाति-प्रथा की एक विशेषता यह है कि यह न केवल श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन करती है, बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है। यह व्यवस्था विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाई जाती है।
  3. व्यक्तिगत रुचि का अभाव: जाति-प्रथा श्रम विभाजन स्वाभाविक नहीं है क्योंकि यह मनुष्य की व्यक्तिगत रुचि और योग्यता पर आधारित नहीं है। एक कुशल या सक्षम श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि व्यक्तियों की क्षमता को इस सीमा तक विकसित किया जाए, जिससे वे अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सकें। लेकिन जाति-प्रथा का दोषपूर्ण सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।
  4. जीवनभर के लिए बंधन: जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती, बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए।
  5. आधुनिक युग की समस्या: आधुनिक युग में उद्योग-धंधों की प्रक्रिया और तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात् परिवर्तन हो जाता है, जिससे मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है। लेकिन यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता नहीं है, तो भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? इस प्रकार, पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

निष्कर्ष: आंबेडकर के अनुसार, आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि और आत्म-शक्ति को दबाकर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय बना देती है, जिससे कार्य-कुशलता के बजाय अदक्षता और अकार्यक्षमता बढ़ती है।


Q3: आंबेडकर द्वारा प्रस्तावित आदर्श समाज के तीन तत्वों को समझाइए और इनके महत्व को बताइए।

Answer:

आंबेडकर के अनुसार, एक आदर्श समाज में तीन अनिवार्य तत्व होने चाहिए:

  1. समानता (Equality)
  2. स्वतंत्रता (Liberty)
  3. भ्रातृता (Fraternity)

1. समानता:

समानता का तात्पर्य यह है कि समाज में सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार किया जाए। आंबेडकर समानता की आलोचना का जवाब देते हुए कहते हैं कि यह सत्य है कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते हैं। वे तीन कारणों से एक-दूसरे से भिन्न होते हैं:

  • शारीरिक वंश-परंपरा
  • सामाजिक उत्तराधिकार (माता-पिता द्वारा प्राप्त शिक्षा, वैज्ञानिक ज्ञान आदि)
  • व्यक्तिगत प्रयास

हालांकि ये असमानताएं वास्तविक हैं, फिर भी समानता एक व्यावहारिक सिद्धांत है। आंबेडकर का तर्क है कि न्याय का तकाजा यह है कि जहाँ व्यक्तियों के बीच असमानता उनके अपने प्रयासों के कारण है (तीसरा आधार), वहाँ उनके साथ असमान व्यवहार उचित हो सकता है। लेकिन जहाँ असमानता उनके अपने नियंत्रण से बाहर की बातों के कारण है (पहले दो आधार), वहाँ उनके साथ असमान व्यवहार निंदनीय है।

समानता का महत्व यह है कि यदि समाज अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करना चाहता है, तो संभव है कि समाज के सदस्यों को प्रारंभ से ही समान सुविधाएं और समान व्यवहार मिलें।

2. स्वतंत्रता (Liberty):

स्वतंत्रता का विस्तृत अर्थ है:

  • गमन-आगमन की स्वतंत्रता: कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता
  • जीवन और शारीरिक सुरक्षा की स्वतंत्रता: अपने जीवन और शरीर की सुरक्षा करने की स्वतंत्रता
  • संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता: संपत्ति रखने और उसका उपयोग करने की स्वतंत्रता
  • आजीविका के लिए आवश्यक साधनों की स्वतंत्रता: शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक औषधि और सामग्री रखने की स्वतंत्रता
  • पेशा चुनने की स्वतंत्रता: अपनी क्षमता के अनुसार अपना पेशा चुनने की स्वतंत्रता

आंबेडकर के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को पहली चार प्रकार की स्वतंत्रता पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन जाति-प्रथा के समर्थक पेशा चुनने की स्वतंत्रता देने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि इसका अर्थ होगा कि किसी को अपना पैतृक पेशा छोड़कर दूसरा पेशा अपनाने की स्वतंत्रता दी जाए।

3. भ्रातृता (Fraternity):

भ्रातृता का अर्थ है आपस में भाई-चारे का संबंध, जिसका तात्पर्य है:

  • दूध-पानी के मिश्रण की तरह हर क्षेत्र में एकता
  • विभिन्न वर्गों के बीच सहज संपर्क
  • समाज के सभी सदस्यों के बीच आपसी विश्वास और सम्मान

भ्रातृता के बिना स्वतंत्रता और समानता अधूरी है। यह लोकतंत्र का आधार है और सामूहिक जीवन-व्यपर्या की एक रीति तथा समाज के संचित अनुभवों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया को अर्थ देता है।

इन तीनों तत्वों का परस्पर संबंध:

आंबेडकर के अनुसार, ये तीनों तत्व एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और सभी मिलकर लोकतांत्रिक समाज का निर्माण करते हैं। समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृता की नींव पर ही एक सुस्थिर और प्रगतिशील समाज का निर्माण संभव है।


Q4: दासता की आंबेडकर की व्यापक परिभाषा को समझाते हुए समझाइए कि जाति-प्रथा किस प्रकार दासता का एक रूप है।

Answer:

दासता की परिभाषा:

आंबेडकर की दासता की परिभाषा अत्यंत व्यापक है। वे कहते हैं कि दासता केवल कानूनी पराधीनता तक सीमित नहीं है। दासता में वह स्थिति भी सम्मिलित है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है, भले ही यह स्थिति कानूनी पराधीनता न हो।

आंबेडकर के शब्दों में: “यदि इंसानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतंत्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है।”

इस व्यापक परिभाषा के अनुसार, दासता दो प्रकार की होती है:

  1. कानूनी दासता: जहाँ कानून द्वारा किसी को किसी दूसरे के अधीन रखा जाता है
  2. सामाजिक दासता: जहाँ सामाजिक मानदंडों और परंपराओं के माध्यम से व्यक्तियों को निर्धारित कार्य और व्यवहार करने के लिए विवश किया जाता है

जाति-प्रथा दासता का रूप कैसे है:

आंबेडकर के विश्लेषण से समझ आता है कि जाति-प्रथा सामाजिक दासता का एक सबसे व्यापक और गहन रूप है:

  1. व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन: जाति-प्रथा व्यक्ति को अपना पेशा चुनने की स्वतंत्रता नहीं देती। व्यक्ति का पेशा गर्भधारण के समय से ही निर्धारित कर दिया जाता है, चाहे वह उसकी रुचि, योग्यता या क्षमता के अनुरूप हो या नहीं। यह एक प्रकार की दासता है।
  2. जीवनभर के लिए बंधन: जाति-प्रथा मनुष्य को एक बार निर्धारित पेशे में जीवनभर के लिए बाँध देती है। भले ही वह पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त हो, भले ही उससे भूखमरी की स्थिति आ जाए, व्यक्ति को उससे मुक्ति नहीं मिलती। यह दासता है।
  3. शारीरिक सुरक्षा का खतरा: जब कोई व्यक्ति भूखों मरने की स्थिति में होता है, तो उसकी बुनियादी शारीरिक सुरक्षा ही संकट में आती है। जाति-प्रथा द्वारा पेशा परिवर्तन की मनाही करके यह स्थिति उत्पन्न की जाती है।
  4. सामाजिक अवमानना: जाति-प्रथा के अंतर्गत केवल व्यवहार निर्धारित नहीं होता, बल्कि समाज में व्यक्ति की ऊँच-नीच की स्थिति भी निर्धारित होती है। कुछ जातियों को ऊँचा और कुछ को नीचा माना जाता है। यह सामाजिक अवमानना दासता का एक अंग है।
  5. स्वतंत्रता का विशेषाधिकार में परिणत होना: आंबेडकर के अनुसार, जब मानवोचित जीवन की सुविधाएं कुछ लोगों तक सीमित हों, तो स्वतंत्रता विशेषाधिकार बन जाती है। जाति-प्रथा कुछ वर्गों को सभी सुविधाएं देती है (जबकि कुछ को नहीं), जिससे उच्च जातियों की स्वतंत्रता दलितों के लिए विशेषाधिकार बन जाती है।

निष्कर्ष:

आंबेडकर के अनुसार, सामाजिक दासता के रूप में जाति-प्रथा भारत में सबसे व्यापक और गहन दासता है। इसमें न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन होता है, बल्कि सामाजिक समानता और सम्मान का भी क्षरण होता है। इसलिए आंबेडकर का तर्क है कि स्वतंत्रता तब तक अधूरी है, जब तक सभी को, विशेषकर दलितों को, अपना पेशा और अपना जीवन-मार्ग चुनने की स्वतंत्रता न मिले।


Q5: आंबेडकर के विचार में समानता एक व्यावहारिक सिद्धांत कैसे है? इसके पक्ष में उन्होंने क्या तर्क दिए हैं?

Answer:

समानता की समस्या:

आंबेडकर को यह आपत्ति स्वीकार है कि सभी मनुष्य जन्म से ही समान नहीं होते। मनुष्य तीन कारणों से एक-दूसरे से भिन्न होते हैं:

  1. शारीरिक वंश-परंपरा (Physical heredity): जन्मजात शारीरिक विशेषताएं
  2. सामाजिक उत्तराधिकार (Social inheritance): माता-पिता से प्राप्त शिक्षा, संस्कार, वैज्ञानिक ज्ञान, पारिवारिक सुविधाएं आदि
  3. व्यक्तिगत प्रयास (Individual efforts): व्यक्ति के अपने प्रयास और मेहनत

बावजूद इन वास्तविक असमानताओं के, आंबेडकर आंबेडकर तर्क देते हैं कि समानता फिर भी एक व्यावहारिक सिद्धांत है।

समानता को व्यावहारिक सिद्धांत मानने के तर्क:

1. न्याय का आधार:

आंबेडकर के अनुसार, असमानता के प्रकार के अनुसार ही असमान व्यवहार की न्यायसंगतता तय होनी चाहिए:

  • अन्यायसंगत असमान व्यवहार: जहाँ असमानता प्रथम दो कारणों (शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार) से उत्पन्न होती है, वहाँ असमान व्यवहार पूरी तरह अन्यायसंगत है, क्योंकि ये कारण व्यक्ति के नियंत्रण में नहीं हैं।
  • संभावित न्यायसंगत असमान व्यवहार: जहाँ असमानता व्यक्तिगत प्रयासों से उत्पन्न होती है (तीसरा कारण), वहाँ असमान व्यवहार को न्यायसंगत माना जा सकता है, क्योंकि यह व्यक्ति के अपने प्रयासों का परिणाम है।

न्याय का सूत्र: यदि समाज के सदस्यों को शुरुआत से ही समान अवसर और समान व्यवहार न दिया जाए, तो प्रतिभा, योग्यता और कुशलता के आधार पर किया जाने वाला भेद अन्यायसंगत होगा। क्योंकि ऐसे में जो लोग समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं, वे स्वाभाविक रूप से अन्यों को हरा देंगे। इससे अमीरों के पक्ष में निर्णय होगा।

2. राजनीतिक व्यावहारिकता का आधार:

एक राजनेता को बहुत बड़ी जनसंख्या से व्यवहार करना पड़ता है। उसके पास न तो हर व्यक्ति की विस्तृत जानकारी होती है, और न ही हर व्यक्ति की अलग-अलग जरूरतों को पूरा करने के लिए अलग-अलग नियम बना सकता है। ऐसी परिस्थिति में, एक राजनेता को एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता होती है।

3. समानता एक व्यावहार्य सिद्धांत है:

आंबेडकर के अनुसार, समानता यह व्यावहार्य सिद्धांत प्रदान करती है। यह सिद्धांत यह है कि सभी मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। एक राजनेता यह नीति इसलिए अपनाता है, न कि यह मानते हुए कि सभी समान हैं, बल्कि इसलिए कि:

  • वर्गीकरण असंभव है (practical impossibility of classification)
  • समान व्यवहार ही सबसे उचित परीक्षणकसौटी है

4. सामाजिक उपयोगिता का आधार:

यदि समाज अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करना चाहता है, तो इसके लिए आवश्यक है कि समाज के सदस्यों को प्रारंभ से ही समान सुविधाएं मिलें। उदाहरण के लिए:

  • अगर एक प्रतिभाशाली बालक गरीब परिवार से आता है और उसे शिक्षा की सुविधा नहीं मिलती, तो समाज उस प्रतिभा को खो देता है।
  • अगर एक अच्छा कलाकार या विचारक दलित जाति में पैदा हुआ है और समाज उसे प्रतिभा विकसित करने के अवसर नहीं देता है, तो समाज के लिए यह एक बहुत बड़ी क्षति है।

इसलिए, अधिकतम सामाजिक कल्याण के लिए आवश्यक है कि सभी को समान शिक्षा, समान अवसर और समान सुविधाएं प्रदान की जाएं।

5. समानता की वैज्ञानिक पुष्टि:

आंबेडकर के अनुसार, आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि प्रत्येक बच्चा अपनी पूरी संभावनाएं लेकर पैदा होता है। अगर उसे सही वातावरण, शिक्षा और प्रोत्साहन न मिले, तो वह प्रतिभा विकसित नहीं हो पाती।

निष्कर्ष:

आंबेडकर का तर्क है कि यद्यपि समानता एक आदर्श अवस्था है, फिर भी यह एक व्यावहारिक सिद्धांत है। समान व्यवहार केवल एक नैतिक आदर्श नहीं है, बल्कि यह:

  1. न्याय के लिए आवश्यक है
  2. राजनीतिक व्यवस्था के लिए सुविधाजनक है
  3. सामाजिक कल्याण को अधिकतम करता है
  4. प्रतिभा को सही दिशा में विकसित करने में मदद करता है

इसलिए, एक आदर्श समाज में समानता एक अनिवार्य तत्व है।


Q6: ‘भ्रातृता’ (Fraternity) की अवधारणा को समझाइए और समझाइए कि यह लोकतंत्र के लिए क्यों महत्वपूर्ण है?

Answer:

भ्रातृता (Fraternity) की अवधारणा:

आंबेडकर के आदर्श समाज का तीसरा और समान रूप से महत्वपूर्ण तत्व है ‘भ्रातृता’। यह शब्द “भाई” (brother) से बना है। भ्रातृता का मूल अर्थ है भाई-चारे का भाव, यानी एक परिवार के सदस्यों जैसे आपस में संबंध रखना।

भ्रातृता के विभिन्न पहलू:

1. दूध-पानी का मिश्रण:

आंबेडकर के अनुसार, भ्रातृता का तात्पर्य है “दूध और पानी के मिश्रण” की तरह एकता। इसका मतलब यह नहीं है कि सभी एक जैसे हों, बल्कि यह कि विभिन्न वर्ग, समुदाय और समूह इस तरह से मिश्रित हों कि उन्हें अलग करना असंभव हो। जैसे दूध में पानी मिल जाने के बाद उसे अलग करना संभव नहीं है, वैसे ही समाज के सभी सदस्य एक-दूसरे से अविभाज्य रूप से जुड़े हों।

2. स्वाभाविक संपर्क:

भ्रातृता समाज के विभिन्न वर्गों के बीच स्वाभाविक और सहज संपर्क को दर्शाती है। यह संपर्क कृत्रिम या बलात् नहीं होना चाहिए, बल्कि लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्ति से उत्पन्न होना चाहिए।

3. आपसी विश्वास और सम्मान:

भ्रातृता का तात्पर्य समाज के सदस्यों के बीच आपसी विश्वास, सम्मान और सहानुभूति है। सभी सदस्य एक-दूसरे को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं और एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान करते हैं।

4. सामूहिक कल्याण की भावना:

भ्रातृता में समाज के सभी सदस्यों में सामूहिक कल्याण की भावना होती है। जैसे एक परिवार में सभी सदस्य एक-दूसरे की भलाई के लिए चिंतित होते हैं, वैसे ही समाज में भी यह भावना होनी चाहिए।

भ्रातृता और लोकतंत्र का संबंध:

1. लोकतंत्र केवल शासन की व्यवस्था नहीं है:

आंबेडकर के अनुसार, लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक व्यवस्था या शासन की एक पद्धति ही नहीं है। वास्तव में, लोकतंत्र:

  • सामूहिक जीवन-व्यपर्या की एक रीति (a manner of associated living)
  • समाज के संचित अनुभवों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया (a process of mutual communication and sharing of experiences)

2. भ्रातृता लोकतंत्र का आधार:

लोकतंत्र को वास्तविक अर्थ में काम करने के लिए भ्रातृता की आवश्यकता है, क्योंकि:

  • सहभागिता: एक सच्चे लोकतांत्रिक समाज में सभी सदस्यों को निर्णय-निर्माण प्रक्रिया में भाग लेना चाहिए। लेकिन यह तभी संभव है जब सभी के बीच भ्रातृता की भावना हो।
  • सामान्य हित: लोकतंत्र समाज के सामान्य हित के लिए काम करता है। लेकिन जब तक लोगों के बीच भ्रातृता की भावना नहीं होगी, तब तक वे केवल अपने स्वार्थ को देखेंगे।
  • सहमति: लोकतांत्रिक व्यवस्था सहमति पर आधारित होती है। जब तक लोगों में भ्रातृता नहीं होगी, तब तक सहमति बनाना कठिन होगा।

3. भ्रातृता के बिना समानता और स्वतंत्रता अधूरी है:

आंबेडकर के अनुसार, समानता और स्वतंत्रता तब तक अधूरी हैं, जब तक उन्हें भ्रातृता द्वारा समर्थित न किया जाए। उदाहरण के लिए:

  • अगर समान व्यवहार के बीच भ्रातृता नहीं है, तो यह भेदभाव या उदासीनता में बदल जाएगा।
  • अगर स्वतंत्रता के बीच भ्रातृता नहीं है, तो स्वतंत्रता स्वार्थ और अराजकता में बदल जाएगी।

4. भ्रातृता सामाजिक एकता सुनिश्चित करती है:

आंबेडकर के अनुसार, एक आदर्श समाज में अबाध संपर्क के अनेक साधन उपलब्ध रहने चाहिए। ऐसे समाज के सभी बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए, और सभी को अपनी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। भ्रातृता की भावना ही इसे संभव बनाती है।

भ्रातृता की शर्तें:

आंबेडकर के अनुसार, भ्रातृता तभी संभव है जब:

  1. समाज के सभी सदस्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए – भेदभाव न हो
  2. सभी को समान सुविधाएं और अवसर मिलें – समानता हो
  3. सभी को अपनी क्षमता विकसित करने की स्वतंत्रता हो – किसी पर दमन न हो
  4. सामाजिक गतिविधियों में सभी को भाग लेने का अवसर हो – सहभागिता हो

निष्कर्ष:

भ्रातृता (Fraternity) केवल एक सुंदर विचार नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र का जीवन-रक्त है। बिना भ्रातृता के:

  • समानता सिर्फ कानूनी व्यवस्था बनकर रह जाती है
  • स्वतंत्रता स्वार्थ में बदल जाती है
  • लोकतंत्र बस चुनाव तक सीमित हो जाता है

इसलिए, आंबेडकर का विचार है कि एक सच्चा लोकतांत्रिक समाज तभी संभव है जब सभी नागरिकों के बीच भ्रातृता की गहरी भावना हो।


Q7: आंबेडकर ने अपनी ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ (जाति का उच्छेद) रचना क्यों तैयार की? इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या है?

Answer:

‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ (जाति का उच्छेद) की रचना की पृष्ठभूमि:

ऐतिहासिक संदर्भ:

यह पाठ आंबेडकर के एक प्रसिद्ध भाषण (lecture) पर आधारित है, जिसे अंग्रेजी में “Annihilation of Caste” (1936) के नाम से जाना जाता है। यह भाषण “जाति-पांति तोड़क मंडल” (Jati Panti Todak Mandal) – लाहौर की एक संस्था – के वार्षिक सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण के रूप में तैयार किया गया था।

रचना की परिस्थितियां:

  1. जाति-पांति तोड़क मंडल का निमंत्रण:
    लाहौर स्थित जाति-पांति तोड़क मंडल ने आंबेडकर को अपने 1936 के वार्षिक सम्मेलन का अध्यक्ष बनाने के लिए आमंत्रित किया। यह एक समाज-सुधार संस्था थी जो जाति-प्रथा के उन्मूलन में विश्वास करती थी।
  2. क्रांतिकारी दृष्टिकोण:
    आंबेडकर का यह भाषण अत्यंत क्रांतिकारी था और उसमें जाति-प्रथा की तीव्र आलोचना की गई थी। आंबेडकर ने न केवल जाति-प्रथा की समीक्षा की, बल्कि हिंदू धर्म की बुनियादी मान्यताओं पर भी सवाल उठाए।
  3. आयोजकों की असहमति:
    भाषण की क्रांतिकारी दृष्टि के कारण, आयोजकों की पूरी तरह से सहमति नहीं बन सकी। परिणामस्वरूप, सम्मेलन ही स्थगित हो गया और यह भाषण पढ़ा नहीं जा सका।

प्रकाशन:

बाद में, आंबेडकर ने इसे एक स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कर वितरित किया, जो अत्यंत लोकप्रिय हुई।

रचना का उद्देश्य:

1. जाति-प्रथा की व्यापक आलोचना:

आंबेडकर का मुख्य उद्देश्य जाति-प्रथा की एक व्यापक और वैज्ञानिक आलोचना प्रस्तुत करना था। उन्होंने यह दर्शाया कि जाति-प्रथा केवल एक सामाजिक बुराई नहीं है, बल्कि यह:

  • एक आर्थिक समस्या है (रोजगार और कुशलता में बाधा)
  • एक राजनीतिक समस्या है (सामाजिक समानता में बाधा)
  • एक मानवीय समस्या है (व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन)

2. श्रम विभाजन और जाति-प्रथा का अंतर दिखाना:

आंबेडकर ने यह तर्क दिया कि जाति-प्रथा के समर्थकों का तर्क कि “जाति-प्रथा श्रम विभाजन का ही एक रूप है” गलत है। आंबेडकर ने समझाया कि:

  • श्रम विभाजन व्यक्ति की योग्यता और रुचि पर आधारित होना चाहिए
  • लेकिन जाति-प्रथा इसे जन्म पर आधारित करती है
  • यह विश्व के किसी भी सभ्य समाज में नहीं पाया जाता

3. आदर्श समाज की कल्पना:

आंबेडकर ने केवल समस्या की आलोचना ही नहीं की, बल्कि एक आदर्श समाज की भी कल्पना प्रस्तुत की, जो समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृता पर आधारित हो।

4. सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रेरणा:

यह भाषण/पाठ जाति-प्रथा से पीड़ित लोगों, विशेषकर दलितों, को सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रेरित करने के लिए था। आंबेडकर यह संदेश देना चाहते थे कि:

  • जाति-प्रथा को हटाया जा सकता है
  • परिवर्तन संभव है
  • शिक्षा और चेतना के माध्यम से समाज को बदला जा सकता है

समकालीन महत्व:

  1. औपनिवेशिक भारत में विमर्श:
    1936 में भारत अभी भी ब्रिटिश शासन में था। इस समय आंबेडकर का यह विचार कि जाति-प्रथा स्वतंत्रता को अधूरा रखती है, अत्यंत महत्वपूर्ण था।
  2. स्वतंत्रता के समय का प्रभाव:
    बाद में, जब भारत को स्वतंत्रता मिली, तो आंबेडकर का विचार भारतीय संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया। संविधान में धर्म, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित किया गया।

लेखक द्वारा पाठ का महत्व:

जो पाठ हमें प्रस्तुत किया गया है, वह इस प्रसिद्ध भाषण के दो प्रमुख प्रकरणों का हिंदी-रूपांतर है। इसमें:

  • श्रम विभाजन और जाति-प्रथा का विश्लेषण
  • अंबेडकर के आदर्श समाज की अवधारणा
  • समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृता पर विस्तृत विचार

निष्कर्ष:

‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ (जाति का उच्छेद) आंबेडकर की जाति-प्रथा के खिलाफ सबसे महत्वपूर्ण और व्यापक रचना है। इसकी रचना एक ऐतिहासिक आवश्यकता थी, क्योंकि जाति-प्रथा न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में एक अद्भुत घटना थी। आंबेडकर ने इसे समझा, इसका विश्लेषण किया, और इसके उन्मूलन के लिए एक रोडमैप प्रस्तुत किया, जिसका प्रभाव आज के भारतीय समाज और संविधान में स्पष्ट दिखाई देता है।


Q8: आंबेडकर के अनुसार, बेरोजगारी और भूखमरी के संदर्भ में जाति-प्रथा की क्या भूमिका है? आज के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता समझाइए।

Answer:

जाति-प्रथा और बेरोजगारी का संबंध:

आंबेडकर का विश्लेषण:

आंबेडकर का यह विचार है कि जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी और भूखमरी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण रही है। आइए इसे विस्तार से समझें:

1. पेशे का पूर्वनिर्धारण:

जाति-प्रथा के तहत व्यक्ति का पेशा उसके जन्म से ही निर्धारित हो जाता है। गर्भधारण के समय ही बता दिया जाता है कि वह व्यक्ति क्या करेगा – एक ब्राह्मण पुजारी बनेगा, एक वैश्य व्यापारी, एक शूद्र किसान या कारीगर, और एक दलित निम्न कार्य करेगा।

2. व्यक्तिगत योग्यता का कोई स्थान नहीं:

इस व्यवस्था में कोई यह विचार नहीं करता कि व्यक्ति को किस काम में रुचि है, या उसमें क्या योग्यता है। उदाहरण के लिए:

  • एक ब्राह्मण परिवार में जन्मा बालक, भले ही वह पुजारी बनने के लिए बिल्कुल अनुपयुक्त हो, फिर भी उसे पुजारी ही बनना होगा।
  • एक दलित परिवार में जन्मा बालक, भले ही वह एक महान वैज्ञानिक या डॉक्टर बन सकता हो, लेकिन उसे अपनी जाति के परंपरागत (और अक्सर हीन) काम करने के लिए विवश किया जाता है।

3. जीवनभर के लिए बंधन:

जाति-प्रथा मनुष्य को एक बार निर्धारित पेशे में जीवनभर के लिए बाँध देती है। यहां तक कि यदि:

  • वह काम अनुपयुक्त या अपर्याप्त हो
  • उससे गुजारा नहीं चल सके
  • बाजार में उस काम की मांग नहीं रह गई हो
  • नई तकनीक ने उस काम को अप्रचलित कर दिया हो

फिर भी व्यक्ति को अपना पेशा बदलने की अनुमति नहीं होती।

4. तकनीकी परिवर्तन और बेरोजगारी:

आधुनिक युग में तकनीकों में निरंतर विकास होता है। उद्योग-धंधों की प्रक्रिया में कभी-कभी अचानक परिवर्तन हो जाता है। उदाहरण के लिए:

  • कभी हस्तशिल्प का काम था, अब मशीन करती है
  • कभी मजदूरों की जरूरत थी, अब स्वचालित उपकरण हैं
  • कभी कुछ कला महत्वपूर्ण थी, अब वह प्रचलन में नहीं है

ऐसी परिस्थितियों में, व्यक्ति को अपना पेशा बदलने की जरूरत पड़ सकती है। लेकिन जाति-प्रथा यह अनुमति नहीं देती।

5. परिणाम – भूखमरी:

आंबेडकर के शब्दों में: “यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है?”

इस प्रकार, जाति-प्रथा बेरोजगारी और भूखमरी का प्रत्यक्ष कारण बनती है।

आंबेडकर का उदाहरण:

आंबेडकर एक ठोस उदाहरण देते हैं: मान लीजिए एक बुनकर जाति का व्यक्ति है। कपड़ों का निर्माण अब मिलों में होता है, हाथ से नहीं। अब बुनकर के पास कोई काम नहीं है। लेकिन जाति-प्रथा उसे:

  • एक व्यापारी नहीं बनने देती
  • एक शिक्षक नहीं बनने देती
  • एक डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बनने देती
  • कोई भी नया काम नहीं सीखने देती

परिणामस्वरूप, वह व्यक्ति बेरोजगार रह जाता है और भूखमरी का सामना करता है।

आर्थिक असक्षमता:

आंबेडकर कहते हैं कि आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। यह मनुष्य की निम्नलिखित को दबा देती है:

  1. स्वाभाविक प्रेरणा (natural motivation): व्यक्ति जो काम करना चाहता है, वह नहीं कर सकता
  2. व्यक्तिगत रुचि (individual interest): अपनी पसंद के काम को नहीं अपना सकता
  3. आत्म-शक्ति का विकास (development of self-power): अपनी क्षमता को पूरी तरह विकसित नहीं कर सकता

जब ऐसा होता है, तो मनुष्य के अंदर काम करने की इच्छा कम हो जाती है, वह काम को अनिच्छा से करता है, और परिणाम अक्षमता और कार्य-कुशलता में कमी होती है।

आज के संदर्भ में प्रासंगिकता:

1. शिक्षा और रोजगार में जाति का भेदभाव:

आज भी, भारत में जाति शिक्षा और रोजगार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है:

  • कुछ समुदायों को अच्छी शिक्षा का अवसर कम मिलता है
  • कुछ जातियों के लोगों को निश्चित तरह के काम में सामाजिक दबाव का सामना करना पड़ता है
  • भेदभाव के कारण कुछ लोग अपनी पूरी क्षमता का विकास नहीं कर पाते

2. व्यावसायिक विविधता की कमी:

कई समुदायों में आज भी परंपरागत व्यवसायों का प्रभाव है:

  • कुछ समुदाय मुख्यतः कृषि करते हैं
  • कुछ परंपरागत कला-कौशल में लगे हैं
  • दलित समुदाय अक्सर हीन माने जाने वाले काम करते हैं

3. सामाजिक गतिविधि:

हालांकि आजादी के बाद से स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन फिर भी:

  • अंतर्जातीय विवाह पर सामाजिक दबाव
  • व्यवसायिक परिवर्तन में सामाजिक बाधाएं
  • कुछ क्षेत्रों में निर्धारित व्यवसाय का दबाव

4. आर्थिक असमानता:

जाति-आधारित व्यावसायिक विभाजन से आर्थिक असमानता बनी हुई है:

  • कुछ समुदायों की औसत आय अधिक है
  • कुछ की कम है
  • यह अंतर अक्सर ऐतिहासिक जाति-आधारित व्यवसायों से संबंधित है

5. नई प्रतिभा की बर्बादी:

जैसे आंबेडकर के समय में, आज भी:

  • एक प्रतिभाशाली दलित बालक शायद अपने परिवार के परंपरागत काम को करने के लिए दबाव महसूस करता है
  • एक महिला को परंपरागत भूमिका निभाने के लिए सामाजिक दबाव होता है
  • समाज को उन लोगों की प्रतिभा से वंचित होना पड़ता है जो अपनी पूरी क्षमता का विकास नहीं कर पाते

निष्कर्ष:

आंबेडकर का यह विश्लेषण आज भी प्रासंगिक है। भले ही संवैधानिक रूप से जाति-प्रथा को समाप्त कर दिया गया है और जाति के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित किया गया है, लेकिन सामाजिक स्तर पर इसका प्रभाव आज भी महसूस किया जाता है।

आंबेडकर का संदेश यह है कि:

  1. व्यक्तिगत स्वतंत्रता अत्यंत महत्वपूर्ण है – हर व्यक्ति को अपना पेशा चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए
  2. योग्यता के आधार पर आवंटन – काम का आवंटन योग्यता, रुचि और क्षमता के आधार पर होना चाहिए, न कि जन्म के आधार पर
  3. सामाजिक गतिविधि – समाज में पूर्ण गतिविधि होनी चाहिए ताकि कोई भी अपना पेशा या जीवन-मार्ग बदल सके

Q9: आंबेडकर ने ‘दासता’ (slavery) की व्यापक परिभाषा क्यों दी? इसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है?

Answer:

दासता की परंपरागत परिभाषा:

सामान्यतः, दासता (slavery) को कानूनी पराधीनता के अर्थ में समझा जाता है। यह मानवीय इतिहास में एक ऐसी व्यवस्था थी जहाँ:

  • कुछ लोगों को कानून के तहत दूसरों का संपत्ति माना जाता था
  • उनके पास कोई व्यक्तिगत अधिकार नहीं होते थे
  • उन्हें जबरदस्ती काम करने के लिए बाध्य किया जाता था

इस परिभाषा के अनुसार, दासता को समाप्त कर दिया गया है (कम से कम कानूनी रूप से)।

आंबेडकर की व्यापक परिभाषा:

लेकिन आंबेडकर दासता की एक बहुत अधिक व्यापक परिभाषा देते हैं। वे कहते हैं कि दासता का तात्पर्य केवल कानूनी पराधीनता नहीं है, बल्कि यह भी है:

“वह स्थिति जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है।”

आंबेडकर के अनुसार, यह स्थिति भले ही कानूनी रूप से स्वीकृत न हो, फिर भी यह दासता ही है।

व्यापक परिभाषा देने के कारण:

1. सामाजिक दासता की पहचान:

आंबेडकर का यह विचार है कि दासता केवल कानूनी नहीं होती, बल्कि सामाजिक भी होती है। जाति-प्रथा एक ऐसी ही सामाजिक दासता है, जहाँ:

  • व्यक्ति को उसके जन्म के अनुसार निर्धारित काम करने के लिए बाध्य किया जाता है
  • व्यक्ति के अपने निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं होती
  • समाज द्वारा अनलिखित नियमों के माध्यम से यह दमन लागू किया जाता है

2. ‘मानवोचित जीवन’ की अवधारणा:

आंबेडकर अपने विख्यात कथन में कहते हैं:

“अगर इंसानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतंत्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है।”

इसका तात्पर्य है कि जब कुछ लोगों को मानवोचित जीवन जीने की सुविधा नहीं दी जाती, तो वे प्रकारांतर से दास हैं।

3. ऐतिहासिक परिस्थितियों से परे जाना:

आंबेडकर को यह समझ था कि दासता के रूप बदल सकते हैं। आधुनिक काल में सीधे-सादे कानूनी दास-प्रथा शायद समाप्त हो गई हो, लेकिन इसके नए रूप अभी भी मौजूद हैं।

दासता के प्रकार:

आंबेडकर की व्यापक परिभाषा के अनुसार, दासता निम्नलिखित रूपों में मौजूद हो सकती है:

1. राजनीतिक दासता:

  • एक समूह का दूसरे समूह द्वारा राजनीतिक दमन

2. आर्थिक दासता:

  • व्यक्ति को अपनी मर्जी के विरुद्ध काम करने के लिए बाध्य करना
  • जीविका के साधन से वंचित करना
  • भूखमरी की धमकी से काम करवाना

3. सामाजिक दासता:

  • सामाजिक परंपराओं के माध्यम से व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित करना
  • जाति-प्रथा के तहत निर्धारित काम करने के लिए बाध्य करना
  • सामाजिक अलगाववाद के माध्यम से दमन करना

4. मानसिक दासता:

  • आत्मविश्वास हीनता से ग्रस्त करना
  • यह विश्वास दिलाना कि कोई परिवर्तन संभव नहीं है
  • दमित समूहों में अपनी हीनता को स्वीकार करने की प्रवृत्ति

दासता का समाज पर प्रभाव:

1. व्यक्तिगत स्तर पर प्रभाव:

आत्मविकास में बाधा:

  • जब व्यक्ति को अपनी क्षमता विकसित करने की स्वतंत्रता नहीं है, तो वह अपनी पूरी प्रतिभा का विकास नहीं कर सकता
  • बुद्धि, कौशल, रचनात्मकता आदि दबे रह जाते हैं

मनोवैज्ञानिक प्रभाव:

  • आत्मसम्मान का ह्रास
  • आत्मविश्वास की कमी
  • निराशा और विषाद

स्वास्थ्य पर प्रभाव:

  • शारीरिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव
  • मानसिक रोग और तनाव

2. पारिवारिक स्तर पर प्रभाव:

दमन की परंपरा:

  • दमित माता-पिता अपने बच्चों को भी वही सीमाएं लगाते हैं
  • दासता एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होती है

संबंधों पर प्रभाव:

  • परिवार के सदस्यों के बीच स्वस्थ संबंध नहीं बन पाते
  • हिंसा और तनाव बढ़ता है

3. सामाजिक स्तर पर प्रभाव:

कार्य-कुशलता में कमी:

  • जब व्यक्ति को अरुचि का काम करने के लिए बाध्य किया जाता है, तो कार्य-कुशलता कम होती है
  • समाज का आर्थिक विकास बाधित होता है

सामाजिक गतिविधि में कमी:

  • समाज के विभिन्न वर्गों के बीच गतिविधि नहीं होती
  • पारस्परिक विरोध और संघर्ष बढ़ता है

प्रतिभा की बर्बादी:

  • जो लोग अपनी पूरी प्रतिभा विकसित नहीं कर पाते, उनकी प्रतिभा समाज के लिए खो जाती है
  • समाज को नई प्रतिभा और नए विचारों से वंचित होना पड़ता है

4. राजनीतिक स्तर पर प्रभाव:

लोकतंत्र का अपूर्ण होना:

  • जब कुछ लोग दमित होते हैं, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था पूरी तरह काम नहीं कर सकती
  • सामूहिक निर्णय-निर्माण में सभी की भागीदारी नहीं होती

संघर्ष और अस्थिरता:

  • दमित वर्ग अंततः विद्रोह करता है
  • सामाजिक अशांति बढ़ती है

5. आर्थिक स्तर पर प्रभाव:

संसाधनों का दुरुपयोग:

  • दमित वर्गों की क्षमता का उपयोग नहीं किया जाता
  • समाज की कुल उत्पादन क्षमता कम हो जाती है

गरीबी का दुष्चक्र:

  • दासता में फंसे लोग आर्थिक रूप से कमजोर रहते हैं
  • उनके बच्चे भी गरीबी से मुक्ति नहीं पा सकते

आंबेडकर का प्रस्ताव:

आंबेडकर के अनुसार, दासता को समाप्त करने के लिए आवश्यक है:

  1. कानूनी समानता:
  • भेदभाव को कानूनी रूप से प्रतिबंधित करना
  • सभी को समान अधिकार देना
  1. सामाजिक समानता:
  • सामाजिक दमन को समाप्त करना
  • सभी को समान अवसर देना
  1. आर्थिक समानता:
  • सभी को जीविका के साधन देना
  • सभी को व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता देना
  1. शिक्षा:
  • दमित वर्गों को शिक्षित करना
  • उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जागरूक करना

निष्कर्ष:

आंबेडकर की व्यापक परिभाषा हमें यह सिखाती है कि दासता केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं है, बल्कि यह अनेक रूपों में आज भी मौजूद है। जब तक समाज में कुछ लोगों को अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानव अधिकारों से वंचित किया जाता है, तब तक दासता का एक रूप मौजूद है। आंबेडकर का संदेश है कि सच्ची स्वतंत्रता तब तक नहीं है, जब तक सभी को, सभी रूपों में, स्वतंत्रता न मिले।

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